धर्म रक्षा संघ परमार्थ सेवा में अग्रणी भूमिका निभाता है।परमार्थ सेवा के अंतर्गत संत सेवा,विधवा सेवा,दरिद्र नारायण सेवा के साथ धार्मिक तीर्थ स्थलों में पधारे हुए भक्तों एवं तीर्थ यात्रियों की सेवा करने में अद्वितीय भूमिका निभाता है। करोना काल में धर्म रक्षा संघ की ओर से प्रतिदिन 10000 से 15000 जरूरतमंद लोगों को भोजन प्रसाद वितरण किया गया था। विधवा महिलाओं को समयानुसार अन्न वस्त्र कम्बल आदि वितरित किए जाते हैं। संतों एवं दरिद्र नारायण लोगों को आज भी प्रतिदिन अन्नक्षेत्र के माध्यम से भोजन प्रसाद का वितरण किया जा रहा है। धर्म रक्षा संघ का संकल्प है कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। संपूर्ण भारत वर्ष से विधवा माताएं भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन होकर वृंदावन आकर निवास करती हैं और ठाकुर जी का भजन कीर्तन कर अपना जीवन यापन करती हैं ऐसी महिलाओं को समय-समय पर उनकी आवश्यकता की सामग्री वस्त्र कपड़ा अन्य उपयोगी वस्तुओं का वितरण धर्म रक्षा संघ द्वारा किया जाता है वृंदावन में भारी संख्या में संत महात्मा लोग निवास करते हैं जिनमें बड़ी संख्या में ऐसे भी संत हैं जिनको दोनों टाइम समय-समय पर धर्म रक्षा संघ के द्वारा जरूरत की वस्तुओं के साथ अन्न वस्त्र इत्यादि उपलब्ध कराया जाता है संत सेवा के लिए धर्म रक्षा संघ हमेशा तत्पर रहता है दरिद्र नारायण सेवा के अंतर्गत भोजन प्रसाद वस्त्र आदि की सेवाएं प्रदान की जाती है अनेक बेसहारा दरिद्र नारायण लोगों को इसका लाभ प्राप्त होता है धर्म रक्षा संघ वृंदावन जैसे तीर्थ स्थानों में पधारे हुए तीर्थ यात्रियों की सेवा में भी हमेशा तत्पर रहता है हमारे कार्यकर्ता वृंदावन में तीज त्यौहार और भीड़भाड़ वाले समय पर विभिन्न स्थानों पर कैंप लगाकर यात्रियों को वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता महसूस होती है करोना कॉल में वृंदावन एवं संपूर्ण ब्रज क्षेत्र में आए हुए दर्शनार्थियों के लॉकडाउन में फंसने के दौरान उनके रहने खाने पीने से लेकर उनके गंतव्य स्थानों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी धर्म रखे संघ के द्वारा उठाई गई जिसकी प्रशंसा अन्य प्रदेशों के जिम्मेदार अधिकारियों ने भी की।रामचरित मानस की एक लाइन है, 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई।' आम आदमी को धर्म का मर्म सरल ढंग से समझाने के लिए मानस की यह चौपाई बहुत ही उपयुक्त है। सार यह है कि दूसरों की भलाई करने जैसा कोई दूसरा धर्म नहीं है।सभी धर्म की सभी परिभाषाओं और व्याख्याओं का निचोड़ है अच्छा बनना और अच्छा करना।और दूसरों की भलाई करना तो निस्संदेह अच्छा करना है।भूखे को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमार लोगों की देखभाल करना, भटकों को सही मार्ग पर लगाना आदि धर्म का पालन करना है, क्योंकि धर्म वह शाश्वत तत्व है जो सर्व कल्याणकारी है। ईश्वर ने स्वयं यह प्रकृति ऐसी रची है कि जिसमें अनेक चेतन और जड़ जीव इसी धर्म (परहित) के पालन में लगे रहते हैं। संत विटप सरिता, गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।। संत जन भी लोक मंगल के लिए कार्य करते हैं। नदियां लोक कल्याण के लिए अपना जल बहाती हैं, वृक्ष दूसरों को अपनी छाया और फल देते हैं, बादल वसुन्धरा पर जनहित में पानी बरसाते हैं। इसी प्रकार सत्पुरुष स्वभाव से ही परहित के लिए कटिबद्ध रहते हैं। इसके विपरीत परपीड़ा अर्थात दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बढ़ कर कोई नीचता का काम नहीं है। परहित नि:स्वार्थ होना चाहिए। जहां स्वार्थ का भाव आ गया, वहां परहित या परमार्थ रहा ही नहीं। यदि किसी की भलाई,बदले में कुछ लेकर की तो वह भलाई नहीं एक प्रकार का व्यापार है। परहित तो वह है, जिसमें दधीचि मुनि देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियां दे देते हैं। अर्थात स्वयं का बलिदान कर देते हैं। जिसमें राजा दिलीप गाय को बचाने के लिए सिंह का भोजन बन जाते हैं। और जिसमें विलाप करती हुई जानकी को रावण के चंगुल से बचाने के लिए संघर्ष करते हुए जटायु अपने प्राण निछावर कर देते हैं। परहित में प्रमुख भाव यह रहता है कि ईश्वर द्वारा दी गई मेरी यह शक्ति और सार्मथ्य किसी की भलाई के काम आ सके। मानस में अन्यत्र आता है : परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग कछु दुर्लभ नाहीं।। यह बात स्वयं भगवान राम ने अन्तिम साँस लेते हुए जटायु से बहुत स्नेह और आभार भाव से कही कि जो दूसरों का हित करने में लगे रहते हैं, उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।परहित करने में प्रेम, सद्भाव और सहिष्णुता जैसे सभी सकारात्मक भाव समाहित हैं, जो धर्म के अंग हैं।महोपनिषद में एक सूत्र है अयं निज: परोवेति गणना लघु चेतशाम,उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम।यह मेरा बंधु है और यह नहीं है,यह क्षुद्र चित्त वालों की बातें होती हैं।उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। वे सबका भला करते हैं।भारत हमेशा से ही ‘सेवा परमो धर्म:’ के सिद्धांत पर चलने वाला देश रहा है और कोरोना कालखंड ने इस सिद्धांत पर यथार्थ की स्याही से स्वर्णाक्षर में लिखकर प्रतिपादित कर दिया है। भारतीय संस्कृति में सेवा क्रिया से ज्यादा भावना का विषय है, जो कि इसे अंग्रेजी के शब्द ‘सर्विस‘ से अलग करता है। ‘सर्विस’ कुछ पाने के लिए दी जाती है और सेवा पूर्णत: निःस्वार्थ भाव से समाज के प्रति अपने कर्तव्य को जानकर नि:स्वार्थ भाव की जाती है।इसी निःस्वार्थ भाव से करोना महामारी के दौरान महीनों की कालावधि समें सैकड़ों-हजारों कार्यकर्ता,दिन-रात पीड़ित मानवता की सेवा में लगे हुए हैं। जरूरतमंद लोगों को आवश्यकता के अनुरूप भोजन सामग्री बांटने,चिकित्सा सुविधाओं की आपूर्ति करने,अपने स्वास्थ्य का सम्पूर्ण ध्यान रखकर अन्य लोगों की सहायता करने में हमारे अनेक धर्म सेवक जी जान से जुटे हुए थे। कोरोना ने भारत में सेवा की परिभाषा ही बदल दी है और भविष्य में इसके मायने और बदलने वाले हैं। यह सम्पूर्ण आपदाकाल भारत की समाज व्यवस्था को मथने वाला रहा है।लोगों ने यह जान लिया है कि अन्य बीमारियों की तरह ही हमें कोरोना के साथ रहने की आदत डालनी होगी। अत: केवल उत्सव, विवाह, अंतिम क्रिया ही नहीं वरन शाम के समय चौपाल या चौराहे पर गपशप के लिए एकत्रित होने वाला भारतीय समाज भी आज अपने- अपने घरों में बैठने को मजबूर हुआ था। करोना काल में धर्म रक्षा संघ ने सिर्फ इंसानों की ही नहीं अपितु जीव-जंतुओं,गौ माता,बंदर, कुत्तों आदि की सेवा का भी भरपूर प्रयास किया।
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